हमारे जीवन के चारों ओर प्रतिदिन कुछ न कुछ ऐसा घटित होता है, जिसे देखकर भी हम अपनी आँखें बंद नहीं कर सकते। फिर भी एक विडम्बना है—हम में से अधिकतर लोग मौन रहना स्वीकार कर लेते हैं। कारण साफ़ है—क्योंकि अन्याय हमारे साथ नहीं, किसी और के साथ हो रहा है। हम सोचते हैं: हमें उससे क्या लेना-देना? उसमें हमारा लाभ क्या है? उसमें हमारी हानि क्या है?
यही मौन, यही चुप्पी समय के साथ एक बड़े तूफ़ान को जन्म देती है। जब अन्याय को सहते–सहते उसकी सीमा टूटती है, तब वही पीड़ा और वेदना ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ती है। उस समय न कोई स्वयं को बचा पाता है और न ही कोई और।
इस पुस्तक का उद्देश्य उन लोगों को चेताना है, जो अन्याय को देखकर भी चुप रह जाते हैं। मौन रहना केवल सहमति नहीं,...